शिवाष्टकम् (Shivashtakam) : जय शिवशंकर, जय गंगाधर! पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे

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शिवाष्टक (Shivashtakam) भगवान् शिव की मात्र एक स्तुति नहीं, बल्कि एक साधक की आत्मा की पुकार है. यह आरती गहराई से पढ़ी जाए तो यह एक ध्यानयोगी की अंतरात्मा से निकली हुई पूर्ण प्रार्थना है, जहाँ भक्ति, वैराग्य, आत्मसमर्पण, विवेक, और मोक्ष की आकांक्षा सब एक साथ समाहित हैं.

हे शिवशंकर! हे गंगाधर! आप करुणा के सागर हैं, सृजनकर्ता हैं! आपकी जय हो। हे कैलाशपति! हे अविनाशी! आप ही आनंद और सुख के मूल हैं। चंद्रमा को धारण करने वाले, डमरू बजाने वाले, प्रेम से भरे शिव को नमन। त्रिपुरासुर का नाश करने वाले, अहंकार को हरने वाले, अनंत और अपार प्रभु को नमन। आप निर्गुण भी हैं और सगुण भी, निराकार भी और साकार भी। आप ही हर स्वरूप हैं। हे पार्वतीपति! हे शिवशंभु! हमारी रक्षा कीजिए!

शिवाष्टक

जय शिवशंकर, जय गंगाधर, करुणाकर करतार हरे,

जय कैलाशी, जय अविनाशी, सुखराशि, सुखसार हरे

जय शशिशेखर, जय डमरूधर जय जय प्रेमागार हरे,

जय त्रिपुरारी, जय मदहारी, अमित अनंत अपार हरे,

निर्गुण जय जय, सगुण अनामय, निराकार साकार हरे।

पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥

जय रामेश्वर, जय नागेश्वर, वैद्यनाथ, केदार हरे,

मल्लिकार्जुन, सोमनाथ जय, महाकाल ओंकार हरे,

त्र्यम्बकेश्वर, जय घुश्मेश्वर, भीमेश्वर जगतार हरे,

काशी-पति, श्री विश्वनाथ जय मंगलमय अघहार हरे,

नीलकंठ जय, भूतनाथ जय, मृत्युंजय अविकार हरे।

पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥

जय महेश जय जय भवेश, जय आदिदेव महादेव विभो,

किस मुख से हे गुरातीत प्रभु! तव अपार गुण वर्णन हो,

जय भवकार, तारक, हारक पातक दारक शिव शम्भो,

दीन दुःख हर सर्व सुखाकर, प्रेम सुधाधर दया करो,

पार लगा दो भव सागर से, बनकर कर्णाधार हरे।

पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥

जय मन भावन, जय अति पावन, शोक नशावन शिव शम्भो,

विपद विदारन, अधम उबारन, सत्य सनातन शिव शम्भो,

सहज वचन हर जलज नयनवर धवल-वरन-तन शिव शम्भो,

मदन-कदन-कर पाप हरन-हर, चरन-मनन, धन शिव शम्भो,

विवसन, विश्वरूप, प्रलयंकर, जग के मूलाधार हरे।

पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥

भोलानाथ कृपालु दयामय, औढरदानी शिव योगी,

सरल हृदय, अतिकरुणा सागर, अकथ-कहानी शिव योगी,

निमिष मात्र में देते हैं, नवनिधि मन मानी शिव योगी,

भक्तों पर सर्वस्व लुटाकर, बने मसानी शिव योगी,

स्वयम्‌ अकिंचन, जनमनरंजन पर शिव परम उदार हरे।

पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥

आशुतोष! इस मोहमयी निद्रा से मुझे जगा देना,

विषम-वेदना से विषयों की मायाधीश छुड़ा देना,

रूप सुधा की एक बूँद से जीवन मुक्त बना देना,

दिव्य-ज्ञान- भंडार-युगल-चरणों को लगन लगा देना,

एक बार इस मन मंदिर में कीजे पद-संचार हरे।

पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥

दानी हो, दो भिक्षा में अपनी अनपायनि भक्ति प्रभो,

शक्तिमान हो, दो अविचल निष्काम प्रेम की शक्ति प्रभो,

त्यागी हो, दो इस असार-संसार से पूर्ण विरक्ति प्रभो,

परमपिता हो, दो तुम अपने चरणों में अनुरक्ति प्रभो,

स्वामी हो निज सेवक की सुन लेना करुण पुकार हरे,

पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥

तुम बिन बेकल हूँ प्राणेश्वर, आ जाओ भगवन्त हरे,

चरण शरण की बाँह गहो, हे उमारमण प्रियकन्त हरे,

विरह व्यथित हूँ दीन दुःखी हूँ दीन दयालु अनन्त हरे,

आओ तुम मेरे हो जाओ, आ जाओ श्रीमंत हरे,

मेरी इस दयनीय दशा पर कुछ तो करो विचार हरे।

पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥

संक्षिप्त व्याख्या 

यहाँ शिव की दो विशेषताओं को पुकारा गया है: गंगाधर - जो ज्ञान (गंगा) को धारण करने वाले हैं, और करुणाकर - जिनका प्रत्येक कार्य संसार के कल्याण के लिए होता है. ईश्वर वही है जो ज्ञान देता है और करुणा से सबका पालन करता है. जब आप शिव को पुकारते हैं, तो आप ज्ञान और दया दोनों की शक्ति को  अपने जीवन में आमंत्रित करते हैं. कैलाश शिव का वह धाम है जहाँ चित्त पूर्ण शांत होता है. अविनाशी शिव समय से परे, मृत्यु से परे चेतना हैं. सुख का सार वही है जो क्षणिक नहीं, शाश्वत हो, वही शिव हैं. संसार का सुख आता-जाता रहता है, पर शिव जैसा शाश्वत सुख, जिसमें शांति, संतुलन और समाधान है, वही सच्चा सुख है. चंद्र शीतलता का भी प्रतीक है, जिसे शिव अपने सिर पर धारण करते हैं. डमरू ध्वनि का आदि स्रोत है, जिससे सृजन की लय आरंभ हुई. शिव का हृदय वैराग्य और प्रेम का मिश्रण है. जब मन स्थिर हो जाए और जीवन की लय शिवमय हो जाए, तब प्रेम की वर्षा स्वाभाविक हो जाती है. शिव वही संतुलन हैं. त्रिपुरारी तीन पुर के अभिमान को नष्ट करने वाले. मदहारी यानी अहंकार का विनाशक. ये पंक्तियाँ शिव को अज्ञान से मुक्ति देने वाले गुरु के रूप में भी दिखाती हैं. शिव हमें हमारे "मैं ही सब कुछ हूँ" वाले भ्रम को तोड़कर वास्तविक आत्मा से जोड़ते हैं, यही मुक्ति की दिशा है. शिव निर्गुण भी हैं और सगुण भी, निराकार भी और साकार भी. आप ही हर स्वरूप हैं. यह अद्वैत की पराकाष्ठा है. शिव को व्यक्त (साकार) और अव्यक्त (निर्गुण) दोनों में अनुभूत किया जा सकता है. ईश्वर को कोई सीमित रूप नहीं बाँध सकता. वह हर रूप में, हर जगह, हर समय है, हम जैसे चाहें वैसे अनुभव कर सकते हैं. "हर हर" का अर्थ है "हर कोई" या "सब कुछ". "हर हर महादेव" का अर्थ है "भगवान शिव सब जगह हैं" या "भगवान शिव सब कुछ हरने वाले हैं". जो हर लेता है, पाप, दुःख, विकार. "शम्भो" शं=शुभ, भो=भव, यानी शुभकारक चेतना का प्राकट्य. जब हम शिव को पुकारते हैं, हम अपने दुःखों, भ्रमों और कमजोरियों को अर्पित करते हैं ताकि वो उन्हें हर लें और हमें शुद्ध बना दें.

यह खंड शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों और अन्य प्रमुख रूपों की स्तुति है. इसमें भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों, नामों, तीर्थस्थानों, और दातृत्व की गहराई से वंदना की गई है. दक्षिण भारत के रामेश्वरम में स्थित ज्योतिर्लिंग रामेश्वर (राम के ईश्वर). यहाँ भगवान श्रीराम ने धर्म की स्थापना के लिए शिवलिंग की स्थापना कर और उनकी पूजा करके उनसे विजय का आशीर्वाद माँगा था. नागेश्वर (नागों के ईश्वर). शिव यहाँ नागों के अधिपति हैं, अहंकार के विनाशक और कुंडलिनी के रक्षक के रूप में काम वासना रूपी इच्छाओं को नियंत्रित करते हैं. वैद्यनाथ (वैद्य के रूप में रोगों का हरण करने वाले). शिव जीवनदाता भी हैं, शारीरिक-मानसिक रोगों को हरने वाले हैं. केदार (केदारनाथ), हिमालय के शिखर पर स्थित ज्योतिर्लिंग है, जो परम विरक्ति और संन्यास का प्रतीक है, जहाँ पहुंचना आत्मा के लिए मोक्ष का मार्ग है. दक्षिण, पश्चिम, पूर्व और उत्तर - चारों दिशाओं में शिव के सर्वव्यापक स्वरूप का जयघोष है.

मल्लिकार्जुन : मल्लिका (पार्वती) + अर्जुन (शिव). शिव-पार्वती के अद्वैत प्रेम का प्रतीक, जब भक्त और भगवान एक हो जाएँ. सोमनाथ (चंद्रमा के नाथ). मन की अस्थिरता का नाश करने वाले. महाकाल (कालों के भी काल). समय, मृत्यु, अहंकार-सबका अंत, जहाँ मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है. ओंकार (ओंकारेश्वर), ओंकार रूपी ब्रह्म का मूर्त रूप. प्रणव ध्वनि “ॐ” का मूर्त रूप. यहाँ शिव नादब्रह्म हैं, शुद्ध चेतना हैं. शिव रूपों से परे “नाद”, “काल” और “प्रेम” के परम स्रोत हैं. उनका वंदन हमारी चेतना को ब्रह्मरूप बनाता है. त्र्यम्बकेश्वर (तीन नेत्रों वाले). तीन नेत्र - ज्ञान (अग्नि), प्रेम (चंद्र), और विवेक (सूर्य)- शिव की त्रिकालदृष्टि को दर्शाती है. घुश्मेश्वर (गहराई से की गई उपासना के फलस्वरूप प्रकट हुए शिव). भक्ति की ऊँचाई, घुश्मा नामक भक्त की तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए शिव. भीमेश्वर (पुण्य की भीमा नदी के तट पर स्थित भीमाशंकर). शिव का ऊर्जा स्वरूप, जो भीतर की नकारात्मकता को जलाते हैं. जगतार (जगत को तारने वाले, उद्धारकर्ता). शिव केवल योगी नहीं, बल्कि जगत के उद्धारक भी हैं. शिव दृष्टि, भक्ति, शक्ति और करुणा - चारों के प्रतीक हैं.

काशीपति (काशी के स्वामी). काशी (वाराणसी) को स्वयं शिव ने अपने त्रिशूल पर धारण किया है. यह मुक्ति की भूमि है. विश्वनाथ (संपूर्ण विश्व के नाथ). शिव केवल एक नगर के नहीं, संपूर्ण विश्व के परम नाथ हैं. मंगलमय (कल्याण करने वाले). शिव केवल पापों का नाश ही नहीं करते, बल्कि मंगल और सद्गुण का उदय भी कराते हैं. अघहार (पापों को हरने वाले). यह पंक्ति भक्ति की ऊँचाई पर ले जाती है, जहाँ शिव हर जन्म के अघों को हरकर मोक्ष देते हैं. नीलकंठ (विषपान करके भी गले में ही उसे रोक लेने वाले). विष को अपने भीतर समाहित करके भी शांत रहने की शक्ति. भूतनाथ (प्रेतों, पिशाचों और पिंडों तक के नाथ). शिव सर्वहारा, अनदेखे, मृतप्राय, सबके ईश्वर हैं. जिसे कोई नहीं अपनाता, शिव उसे भी अपना लेते हैं. मृत्युंजय (मृत्यु को जीतने वाले). मृत्यु, परिवर्तन, समय- इन सबसे परे शिव. मृत्यु को जीतने का उपाय केवल शिव भक्ति है. अविकार (बिना किसी विकार के, सदा शुद्ध). संसार में रहते हुए भी सदा शुद्ध, निर्लिप्त, निर्भय - शिव की महिमा हमें भीतर से निर्भय, समत्वयुक्त और निष्कलंक बनने की प्रेरणा देती है.

क्रमशः 

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