द्वैत, अद्वैत, विशिष्‍टाद्वैत और द्वैताद्वैत क्या हैं और इनके बीच क्या अंतर है

Dwait Adwait in Hindi

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दर्शन क्या है (What is Darshan) : दर्शन (Philosophy) यानी 'देखना', आँखों से नहीं बल्कि अंतर्मन से, तर्क से या ज्ञान से देखना. यहां 'दर्शन' ज्ञान की प्राप्ति का एक माध्यम है. जैसे वेदांत दर्शन, चार्वाक का सुखवाद, जैन दर्शन, सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, गीता का निष्काम कर्म और मीमांसा का कर्मवाद आदि (यानी जिसके माध्यम से जो भी ज्ञान प्राप्त हुआ). इनमें 'वेदांत' का अर्थ है- वेदों का अंत.

वेदांत क्या हैं (What is Vedanta) : आरम्भ में 'वेदांत' शब्द का प्रयोग उपनिषदों (Upanishads) के लिए हुआ था, क्योंकि उपनिषद् वेदों के अंत में आते हैं, लेकिन बाद में उपनिषदों के ही सिद्धांतों को आधार मानकर जिन विचारों का विकास हुआ, उनके लिए भी 'वेदांत' शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा.

भारतीय दर्शन में भौतिकवाद और अध्यात्मवाद, दोनों ही शामिल हैं. भारत में जितने दर्शनों का विकास हुआ, उनमें सबसे महत्वपूर्ण दर्शन 'वेदांत' को कहा जाता है. वेदांत दर्शन का प्रमुख सवाल है- जीव और ब्रह्म में क्या सम्बन्ध है? इस प्रश्न के अलग-अलग उत्तर दिए गए हैं, जिनके कारण वेदांत के अलग-अलग संप्रदायों या मतों का जन्म हुआ.

जैसे, आदि शंकराचार्य का मानना था जीव (आत्मा) और ब्रह्म दो अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही हैं, इसलिए उनके दर्शन को 'अद्वैतवाद' (Non-Dualism) कहा जाता है. जबकि माध्वाचार्य का मानना था कि आत्मा और परमात्मा अलग-अलग हैं, इसलिए इनके मत को 'द्वैतवाद' (Dualism) कहा जाता है. हालांकि सभी मतों का सार एक ही है- भक्ति और समर्पण.

वेदांत दर्शन में अनेक मतों का विकास हुआ, जिनमें 4 प्रमुख हैं -

(1) अद्वैतवाद, जिनके मुख्य प्रवर्तक आदि शंकराचार्य हैं.

(2) विशिष्टाद्वैतवाद, जिनके मुख्य प्रवर्तक स्वामी रामानुजाचार्य हैं.

(3) द्वैतवाद, जिनके मुख्य प्रवर्तक माध्वाचार्य हैं.

(4) द्वैताद्वैतवाद, जिनके मुख्य प्रवर्तक निम्बकाचार्य या निम्बार्क हैं.

Dwait, Adwait, Vishishtadvaita, Dvaitadvaita in Hindi

अद्वैतवाद (Advaita) : अद्वैत दर्शन के मुख्य प्रवर्तक आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) को माना जाता है. यह दर्शन जीव (आत्मा) और ब्रह्म को दो अलग-अलग न मानकर एक ही मानता है. यह दर्शन संसार को एक भ्रम या माया बताता है. सुख-दुःख, सभी कार्य और भावनाएं केवल भ्रम हैं, क्योंकि ब्रह्म के आलावा दूसरा कुछ है ही नहीं.

इस मत के अनुसार, आत्मा ब्रह्म से अलग नहीं है, यानी ब्रह्म ही आत्मा है. शंकराचार्य एक ही सत्ता यानी ब्रह्म की ही बात करते हैं, इसीलिए इनके दर्शन को 'अ-द्वैतवाद' (Non-dualism) कहा गया है. शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म निर्गुण है. यानी परमात्मा के निर्गुण-निराकार (जिसका कोई आकार न हो) स्वरूप की उपासना, ध्यान, जप, भक्ति करने का नाम 'अद्वैतवाद' है.

आदि शंकराचार्य ने कहा था कि "अहं ब्रह्मास्मि का अर्थ यह नहीं कि 'मैं ही ब्रह्म हूं', इसका सही अर्थ यह है कि 'पूरे ब्रह्मांड में ऐसा कुछ भी नहीं, जो मुझसे अलग हो". शंकराचार्य के अनुसार, ब्रह्म एक ही है, लेकिन उसके दो रूप हैं- निर्गुण और सगुण. परमात्मा और जीव एक ही हैं या सभी आत्मा, परमात्मा का ही अंश हैं. आत्मा और परमात्मा में भेद नहीं किया जा सकता है.

द्वैतवाद (Dvaita) : द्वैतवाद के मुख्य प्रवर्तक माध्वाचार्य (Madhvacharya) को माना जाता है. द्वैत का मतलब है- 'दो' यानी जीव और ब्रह्म. इस दर्शन में जीव और ब्रह्म को अलग-अलग माना गया है और उसी के अनुसार ईश्वर की आराधना की जाती है. इस मत के अनुसार, संसार असली है और इसे ईश्वर ने बनाया है और वह भी असली हैं.

आत्मा जो कि इस संसार में सुख-दुख का अनुभव करती है, जबकि ईश्वर सर्वव्यापी है. यही इन दोनों के बीच अंतर है और यही द्वैतवाद (Dualism) है. परमात्मा के सगुण-साकार (जिनका कोई निश्चित आकार होता है) रूप की, अपने आराध्य या इष्ट देव के रूप में पूजा-आराधना, ध्यान उपासना, जप, भक्ति आदि करने का नाम द्वैतवाद है. द्वैत और अद्वैत के दर्शन के बीच एक समानता ये है, कि दोनों ही भक्ति या समर्पण की बात करते हैं.

विशिष्टाद्वैतवाद (Vishishtadvaita) : स्वामी रामानुजाचार्य (Swami Ramanujacharya) या आचार्य रामानुज का मत विशिष्‍टाद्वैतवाद कहलाता है. रामानुजाचार्य भागवद धर्म के ईश्वरवाद से प्रभावित थे, इसलिए वे ब्रह्म की सगुण और साकार रूप में उपासना करना चाहते थे.

उनके मत के अनुसार, सत्ता तो एक ब्रह्म की है, लेकिन जिस तरह किसी पेड़ की शाखाएं ,पत्ते, फल-फूल उसी पेड़ के अलग-अलग भाग होते हैं, उसी तरह जीव (आत्मा) और माया, परमात्मा के ही भाग हैं, या उन्हीं के विशेष गुण हैं. इसीलिए इस दर्शन को विशिष्टाद्वैतवाद (Qualified Non-Dualism) नाम दिया गया है.

आदि शंकराचार्य ने संसार को माया बताते हुए इसे एक भ्रम या मिथ्या बताया है. लेकिन रामानुजाचार्य के अनुसार, संसार भी ब्रह्म ने ही बनाया है, इसलिए यह भ्रम या मिथ्या नहीं हो सकता. यह असली है. जैसे सूर्य से किरणें निकलती हैं, उसी तरह संसार और जीवात्मा भी ब्रह्म से ही निकले हैं. इस तरह ब्रह्म एक होने पर भी अनेक हैं. यानी यहां ब्रह्म भी सत्य है और माया भी. ब्रह्म सगुण है. आत्मा और परमात्मा के बीच अंतर किया जा सकता है, क्योंकि ब्रह्म के अंदर ही ईश्वर, जीवात्मा और जड़ आदि शामिल हैं.

द्वैताद्वैतवाद (Dvaitadvaita) : इस दर्शन के मुख्य प्रवर्तक निम्बकाचार्य या निम्बार्क (Nimbakacharya) हैं. ये अद्वैत और द्वैत दोनों को ही सही मानते हैं. इनके अनुसार आत्मा, परमात्मा का ही एक अंश है. इस अंश को अलग कह सकते हैं लेकिन दोनों एक ही होते हैं. जैसे मिट्टी ही घड़ा बन जाती है. मिट्टी के बिना घड़े का कोई अस्तित्व नहीं. लेकिन घड़ा बन जाने के बाद मिट्टी और घड़े को अलग-अलग कह सकते हैं. घड़े को बाद में फिर मिट्टी ही बन जाना है, या जैसे समुद्र और उसकी बूंद अलग-अलग भी हैं और दोनों एक भी हो सकती हैं, या जैसे शक्ति, शक्तिमान से अलग नहीं होती, शक्तिमान की ही होती है.

सगुण और निर्गुण क्या है? (What is Sagun and Nirgun)

सगुण रूप में पूजा करने का मतलब है कि हम भगवान का कोई आकार और गुण मानते हैं. अपनी सोच के हिसाब से भगवान को देखते हैं. जैसे- भगवान श्री कृष्ण का जो रूप हमें तस्वीरों, मूर्तियों आदि में देखने को मिलता है, उसे हम मानते हैं कि श्रीकृष्ण ऐसे ही दिखते होंगे. इसी तरह हम हर देवी-देवता के बारे में जानकर उनका कोई आकार बनाते हैं... और उनके अलग-अलग गुणों पर विचार करते हैं. ये है सगुण पूजा यानी एक रूप की या आकार की पूजा. यानी हम ब्रह्म को एक शरीर के रूप में देखते हैं.

निर्गुण रूप में भगवान की पूजा करने का मतलब है कि हम भगवान का कोई निश्चित आकार तय नहीं करते, क्योंकि भगवान के सत्य स्वरूप को जानना किसी के वश की बात नहीं. इसलिए हम सोचते हैं कि उनका कोई निश्चित आकार है ही नहीं, यानी वे निराकार हैं, क्योंकि जिनका आदि-अंत ही नहीं है, उन्हें एक निश्चित आकार में नहीं बांधा जा सकता है.

इसी भावना के चलते शिवलिंग (Shivlinga) के खंडित (टूटने) होने पर भी उसका दोष नहीं माना जाता, जबकि अन्य देवी-देवताओं की मूर्ति खंडित होना अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि शिवलिंग की पूजा भगवान शिव के निराकार या निर्गुण स्वरूप की पूजा होती है. यानी निर्गुण में हम ब्रह्म को कोई निश्चित आकार नहीं देते.

इस तरह ब्रह्म तो एक ही हैं, लेकिन सगुण और निर्गुण, दोनों हमारे अंदर के भाव हैं कि हम भगवान को किस रूप में पूजते हैं.

उदाहरण : उद्धव ब्रह्म को निर्गुण रूप में पूजते थे, जबकि गोपियां सगुण (श्रीकृष्ण) रूप में. उद्धव कहते थे कि 'भगवान या ब्रह्म को कोई देख नहीं सकता, कोई छू नहीं सकता, क्योंकि उनका कोई निश्चित आकार नहीं है यानी निराकार हैं'. जबकि गोपियां कहती थीं कि 'हमने भगवान को देखा है, छुआ भी है क्योंकि हमारे कृष्ण ही भगवान हैं'.

उद्धव और गोपियां.... ये सभी लोग भगवान या ईश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पित थे, भगवान के सच्चे भक्त थे. उद्धव की बात भी सही थी और गोपियों की भी.

उद्धव भी जानते थे कि श्रीकृष्ण भगवान ही हैं, यानी ब्रह्म या भगवान ने श्रीकृष्ण के रूप में (सगुण रूप में) जन्म लिया है. इसीलिए वे गोपियों को ये समझाने गए थे कि भगवान या श्रीकृष्ण के निर्गुण स्वरूप को पहचानो और उसी निर्गुण रूप की उपासना करो, ताकि उनके दूर जाने पर दुख न हो, क्योंकि निर्गुण और निराकार स्वरूप में वे हर जगह और हर समय हैं, जबकि सगुण और साकार रूप में वे सब जगह नहीं हैं.

लेकिन गोपियों का कहना था कि "जो भगवान दिखाई नहीं देते, उनकी पूजा कैसे की जा सकती है, उनसे प्रेम कैसे किया जा सकता है, उनके साथ सुख-दुःख की अनुभूति कैसे की जा सकती है, इसलिए हम श्रीकृष्ण से ही प्रेम करेंगे, फिर चाहे हमें सुख मिले या दुख..."

उद्धव का कहना था कि संसार, प्रेम, सुख-दुख आदि मिथ्या या भ्रम हैं. जबकि गोपियों का कहना था कि "प्रेम ही सबसे बड़ा सत्य है, प्रेम और भावनाओं के बिना कुछ भी नहीं, यह संसार भी नहीं. प्रेम (भक्ति) ही वह शक्ति है, जो निर्गुण और निराकार ब्रह्म को भी सगुण और साकार रूप लेने पर विवश कर देती है. भगवान से हम गोपियों की तरह ही प्रेम करके देखो, तो पता चलेगा कि भगवान अपने सगुण और साकार रूप में भी हर जगह हैं..."

इस तर्क-वितर्क में अंत में जीत गोपियों की हुई थी और उद्धव का मार्गदर्शन राधा जी ने किया था.

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