मधुराष्टकम् (Madhurashtakam) संस्कृत का एक लोकप्रिय स्तोत्र और एक अनुपम स्तुति है, जिसकी रचना श्री वल्लभाचार्य जी ने की थी. यह अष्टक (8 श्लोकों का समूह) श्रीकृष्ण के सौंदर्य, गुण, व्यवहार और प्रेम की उस अनुभूति का गान है, जिसे एक भक्त अपने ह्रदय की गहराई से अनुभव करता है. वल्लभाचार्य जी पुष्टिमार्ग (शुद्ध भक्ति मार्ग) के प्रणेता थे, और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के बालस्वरूप, रासलीला और नित्यलीला की मधुरता को अपने भक्ति-रस में सराबोर होकर अनेक स्तोत्रों में व्यक्त किया. मधुराष्टकम् उनमें से सबसे प्रसिद्ध है.
मधुराष्टकम् एक अत्यंत सुंदर और भक्तिमय स्तोत्र है, जो श्रीकृष्ण की प्रत्येक अद्भुत विशेषता को "मधुर" (मधुर = मधुरता से भरपूर, अनुपम, मनमोहक) कहकर उनकी संपूर्ण दिव्यता का गान करता है. वल्लभाचार्य जी के शब्दों में -
"मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्"
अर्थात् मधुरता के स्वामी श्रीकृष्ण का सब कुछ मधुर है!
यह स्तोत्र बताता है कि भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप से लेकर व्यवहार तक, चरणों से लेकर वंशी तक, हास्य से लेकर लीला तक, सब कुछ मधुर है. यह न केवल श्रीकृष्ण की बाह्य सौंदर्यता का वर्णन करता है, बल्कि उनके स्वभाव, उनके प्रेम, और उनके भक्तों के प्रति करुणा की मधुरता का भी वर्णन करता है.
मधुराष्टकम् हमें भक्ति के उस स्तर तक ले जाता है जहाँ ईश्वर केवल पूजनीय नहीं रहते, वे प्रेमास्पद बन जाते हैं. यह सांख्यिक या तर्क आधारित उपासना नहीं, बल्कि रसात्मक और भावनात्मक उपासना का मार्ग है. जब प्रत्येक दृश्य में ईश्वर की मधुरता दिखाई देने लगे, तब हृदय शुद्ध हो जाता है और व्यक्ति भेदभाव से ऊपर उठकर एकरस आनंद में स्थिर हो जाता है. मधुराष्टकम् का नियमित पाठ, विशेष रूप से संध्या समय, भक्त के अंतर्मन को भगवान के स्वरूप में रमाने का सुंदर साधन बनता है.
जो इसे सच्चे भाव और ध्यान से पढ़ता है, उसके हृदय में प्रेम रस की स्थापना होती है. यह राग-द्वेष, अहंकार, मोह जैसे दोषों को धीरे-धीरे नष्ट करता है. भगवान श्रीकृष्ण का "माधुर्य" स्वरूप जीवन में आशा, प्रेम और आनंद भर देता है. यह केवल एक स्तोत्र नहीं है, यह एक अंतर्मन की यात्रा है, जिसमें हर पंक्ति भक्त के प्रेम को ईश्वर के साथ जोड़ती है. यह हमें सिखाता है कि ईश्वर की उपस्थिति हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण को मधुर बना सकती है, यदि हम प्रेम, भक्ति और श्रद्धा से उसे देखें.
जय श्री राधेकृष्ण
अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरं ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरं।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं॥
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरं।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं॥
गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं॥
गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं।
दृष्टं मधुरं सृष्टं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं॥
गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं॥
जय श्री राधेकृष्ण
भगवान श्रीकृष्ण के अधर (होठ), मुख, नेत्र, मुस्कान, हृदय और उनकी चाल - सब कुछ मधुर (आनंददायक, सुंदर) है. वे "मधुराधिपति" हैं, मधुरता के परम अधिपति. भक्त की दृष्टि में भगवान के प्रत्येक अंग और क्रिया में केवल माधुर्य ही माधुर्य है. प्रेम में जब आँखें देखती हैं, तो केवल सुंदरता ही नजर आती है. यह स्तोत्र सिखाता है कि जब प्रेम और भक्ति की आँखों से देखें, तो हर बात में सौंदर्य दिखाई देता है. Even flaws turn divine.
उनका बोलना, चरित्र, वस्त्र, अंग की लचक, उनका चलना, और भ्रमण करना- सब कुछ मधुर है. भगवान श्रीकृष्ण के हर हाव-भाव में, हर क्रिया में एक सौम्यता, एक दिव्यता छिपी है, जिसे केवल एक भक्ति से भरपूर हृदय ही अनुभव कर सकता है. यह भाव सिखाता है कि दिव्यता चरित्र में होती है, चाल में होती है, व्यवहार में होती है.
श्रीकृष्ण का बांसुरी वादन, धूल (रेणु) जो उनके चरणों से उड़ती है, उनके हाथ-पाँव, उनका नृत्य, और उनके सखा भी - सब कुछ मधुर है. यहाँ तक कि उनके साथ जुड़े सभी पदार्थ, जैसे बांसुरी, धूल, सखा - भी माधुर्य से भरपूर हैं. प्रेम में जो भगवान का है, वही प्रिय हो जाता है. सच्चे प्रेम में प्रिय की प्रत्येक वस्तु, उसका स्पर्श, उसका साथी तक सुंदर लगता है. यही निष्काम भक्ति का लक्षण है.
उनका गाना, उनका पीना, उनका भोजन, उनकी निद्रा, उनका रूप, और उनके तिलक तक - सब कुछ मधुर है. भगवान के लौकिक कार्य भी अलौकिक लगते हैं. यह भक्त की दृष्टि है जो ईश्वर की साधारण गतिविधियों को भी अद्भुत अनुभव में बदल देती है. जब भक्ति गहराती है, तो हर कार्य - सोना, खाना, बोलना - ईश्वर का रूप बन जाता है. जीवन आध्यात्मिक हो जाता है.
उनकी क्रिया (जो वे करते हैं), उनका तरण (पार लगाना), संकट हरना, रमण करना (लीला रचना), और उनका सबको शांति देना - सब कुछ मधुर है. यहाँ भगवान के कार्यों के गहरे भावों की मधुरता है. वे रक्षा करते हैं, लीला करते हैं, उद्धार करते हैं - और इन सभी में एक दिव्य माधुर्य है. ईश्वर के कर्तव्यों में भी एक सौंदर्य होता है. हमें भी अपने कर्मों को सुंदरता और करुणा से करना चाहिए.
गुंजार की माला, यमुना नदी, उसकी लहरें, उसका जल और कमल के फूल, सब मधुर हैं. श्रीकृष्ण की उपस्थिति से प्रकृति मधुर हो जाती है. एक भक्त को ब्रह्मांड का हर अंश प्यारा लगने लगता है. ईश्वर केवल व्यक्ति नहीं, वह सम्पूर्ण प्रकृति में है, प्रकृति उसी का रूप है. प्रकृति के कण-कण में माधुर्य देखना, आध्यात्मिक दृष्टि है.
गोपियाँ, उनकी लीला, उनका योग, उनका मोक्ष, उनका दर्शन और उनका ब्रह्मांड निर्माण, सब मधुर है. भगवान श्रीकृष्ण की गोपियाँ भी आत्मा का रूप हैं. लीला और मोक्ष दो विरोधी प्रतीत होने वाले पहलू भी उनके साथ मधुरता में समाहित हो जाते हैं. भक्ति की पराकाष्ठा वह है जहाँ लीला (जन्म-मृत्यु का संसार) भी मोक्ष बन जाती है. भक्त के लिए हर अनुभव में ईश्वर ही है.
गोप, गौएँ, उनकी छड़ी, उनकी सृष्टि, जो टूटता है वह भी मधुर है और जो फलित होता है वह भी. भगवान का हर संबंध - गोप-गोपियाँ, पशु, वस्तुएँ, यहाँ तक कि जीवन के द्वंद्व (टूटना और बनना) भी मधुर हैं. जीवन के हर उतार-चढ़ाव को प्रेम से देखना ही कृष्णभाव है. यही हमें साम्य दृष्टि सिखाता है. यही पूर्ण समर्पण की अवस्था है, जहाँ हम केवल प्रेम, सौंदर्य और माधुर्य का अनुभव करते हैं.
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