अश्वमेध यज्ञ (Ashwamedh Yagya)

अश्वमेध यज्ञ (Ashwamedh Yagya) प्राचीन वैदिक यज्ञों में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण और राजसूय स्तर का यज्ञ है. इसमें एक विशेष घोड़े को चुनकर उसे पूरे राज्य की सीमाओं में तथा पड़ोसी राज्यों में एक वर्ष तक स्वतंत्र रूप से घूमने दिया जाता था. यह घोड़ा राजसत्ता और साम्राज्य की सार्वभौमिकता का प्रतीक माना जाता था. यदि किसी राजा को अपनी शक्ति पर विश्वास होता था और वह खुद को सम्राट (सर्वश्रेष्ठ, चक्रवर्ती सम्राट) के रूप में स्थापित करना चाहता था, तो वह अश्वमेध यज्ञ करता था.

यह यज्ञ इन्द्र और सर्वोच्च देवताओं को समर्पित माना जाता था, जिससे राज्य में धर्म, समृद्धि और सुरक्षा बनी रहती थी. अश्वमेध यज्ञ बहुत बड़ा आयोजन होता था, जिसमें हजारों लोग भोजन पाते, दान दिए जाते और समाज में राजा की प्रतिष्ठा बढ़ती थी.

आश्वलायन श्रौत सूत्र (10.6.1) का कथन है कि जो सब पदार्थो को प्राप्त करना चाहता है, सब विजयों का इच्छुक होता है और समस्त समृद्धि पाने की कामना करता है वह इस यज्ञ का अधिकारी है.

यहां अश्व को मन और इच्छाशक्ति का प्रतीक माना गया है. अश्वमेध का तात्पर्य केवल राजनीतिक शक्ति नहीं, बल्कि अपने मन, इन्द्रियों और जीवन पर विजय प्राप्त करना भी है. "मेध" का अर्थ बलिदान है, यानी अपनी कामनाओं का बलिदान कर सत्य और धर्म की स्थापना करना.

संस्कृत और वेदों में यज्ञ सम्बन्धी अश्व शब्द के कई स्तर हैं -

घोड़ा (साधारण अर्थ). वेग, शक्ति, प्राण-ऊर्जा, सूर्य की गति (वास्तविक अर्थ). ऋग्वेद में अश्व का प्रयोग सूर्य के लिए भी है, जैसे अश्वो वा सूर्यः।

यानी अश्व केवल पशु नहीं, बल्कि ऊर्जा और जीवनशक्ति का प्रतीक है.

अश्वमेध का शाब्दिक अर्थ है,

अश्व (ऊर्जा, शक्ति, प्राण, सूर्य) + मेध (बुद्धि, संघटन, यज्ञ). शक्ति और प्राणऊर्जा का संयमित प्रयोग करके समाज और राष्ट्र का कल्याण करना.

सूर्यमेध का अर्थ है, सूर्यऊर्जा का यज्ञ, यानी सूर्य की शक्ति का आह्वान करना. पुरुषमेध का अर्थ है, समाज के विभिन्न वर्गों को यज्ञ में प्रतिनिधित्व देना (न कि उन्हें काटकर उनकी हत्या करना).

बृहदारण्यक उपनिषद के पहले अध्याय के पहले ब्राह्मण का पहला मंत्र ॐ से शुरू होता है, और अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को ब्रह्मांडीय स्वरूप में प्रस्तुत करता है. इसमें घोड़े के सिर को भोर (सुबह) और आँख को सूर्य बताया गया है, साथ ही उसकी प्राणशक्ति को वायु और खुले मुंह को वैश्वानर अग्नि के रूप में वर्णित किया गया है.

अथातोऽश्वमेधं व्याख्यास्यामः । अश्वो वै सर्वदेवता भवति । अहो रात्रे अश्वस्य मुखम् । सूर्यश्चक्षुः । वायुः प्राणः । विश्वं खं शरीरम् । अन्तरिक्षं पृष्ठम् । दिकः पार्श्वे । अग्निश्च उच्छ्वासः । वर्षा निःश्वासः । संपातः पादौ ।

अश्वमेध (अश्व = ब्रह्म, मेध = यज्ञ)

अश्व सम्पूर्ण देवताओं का प्रतीक है। अश्व, वह शक्ति है जो निरंतर गति करती है, ऊर्जा है, प्राण है। दिन और रात उसके मुख हैं। सूर्य उसकी आँखें हैं। वायु उसका प्राण है। समस्त आकाश उसका शरीर है। अन्तरिक्ष उसकी पीठ है। दिशाएँ उसके पार्श्व हैं। अग्नि उसका श्वास (प्राण का उच्छ्वास) है। वर्षा उसका निःश्वास है। आकाशीय गति (संपात) उसके पाँव हैं।

यह ब्रह्मांड को एक विशाल, जीवित प्राणी के रूप में देखने का प्रतीक है, जिसमें प्रत्येक तत्व एक दूसरे से जुड़ा हुआ है. यह घोड़े के शरीर के विभिन्न अंगों को ब्रह्मांडीय तत्वों से जोड़ता है, जिससे अश्वमेध यज्ञ केवल एक कर्मकांड न होकर, ब्रह्मांड को समझने और उसके साथ एकाकार होने का एक मार्ग बन जाता है.

सार यह है कि यहाँ अश्व किसी घोड़े का नहीं, बल्कि सर्वव्यापी ब्रह्माण्ड और ब्रह्म का प्रतीक है. अश्वमेध यज्ञ का अर्थ है, ब्रह्माण्डीय चेतना को पहचानना, उसका ध्यान करना और अपनी बुद्धि को उसी में स्थिर करना. यज्ञ का अर्थ है बुद्धि को शुद्ध करके ब्रह्म से एकाग्र करना. इसलिए अश्वमेध, ब्रह्माण्डीय गति और शक्ति के साथ एकात्म होने का यज्ञ है.

अश्वमेध यज्ञ के अश्व को प्रजापतिरूप (सृष्टि का मूल बीज, सृजनकर्ता) बताया गया है, "अश्वस्य प्रजापतित्वात्"

तो अब प्रजापति को ही काटकर उसका होम तो नहीं किया जाएगा न...?

महर्षि याज्ञवल्क्य के द्वारा स्पष्ट होता है कि यह आध्यात्मिक और दार्शनिक यज्ञ है, न कि कोई पशुबलि. यह सृष्टि और चेतना के एकत्व का महायज्ञ है. इसे करने का अर्थ है अपनी बुद्धि को शुद्ध करके ब्रह्माण्डीय सत्य के साथ जोड़ना.

लेकिन बाद में आए कुछ धूर्त भाष्यों (जैसे रावण व आसुरी प्रवृत्ति वाले) ने इस उच्च आध्यात्मिक अर्थ को छिपाकर अश्लील या हिंसक व्याख्या जोड़ दी, ताकि वेदों को बदनाम किया जा सके, और मनुष्य को वेदों व धर्म के नाम पर ही अधर्मी बनाकर सनातन धर्म का पतन किया जा सके.

ऋग्वेद (10.87.16) और अथर्ववेद (19.48.5) में अहिंसा और प्राणियों की रक्षा पर बल है. हिंसा, अहिंसा, दंड आदि में अंतर है. छान्दोग्य उपनिषद (8.15.1) स्पष्ट कहता है कि यज्ञ का उद्देश्य आत्मिक उन्नति है, हिंसा नहीं.

"हे अग्नि (हे तेजस्वी नायक)! जो यातुधान मनुष्य का मांस खाता है, जो घोड़े या अन्य पशुओं का मांस खाता है, जो गाय का दूध चुराता है, उन सबके सिर अपनी ज्वाला से काट डालो।"

"वे महान आत्माएँ जो ध्यान और अन्य योगिक तरीकों का अभ्यास करती हैं, जो सभी प्राणियों के विषय में सदैव सावधान रहती हैं, जो सभी पशुओं की रक्षा करती हैं, वे वास्तव में आत्मिक अभ्यास के प्रति गंभीर हैं।" (अथर्ववेद 19.48.5)

"जो लोग मांस खाते हैं वे मनुष्यों में सबसे नीच हैं। मांस खरीदने वाला अपने धन से हिंसा करता है; मांस खाने वाला उसका स्वाद लेकर हिंसा करता है; और हत्यारा पशु को बाँधकर और मारकर हिंसा करता है। इस प्रकार, हत्या के तीन प्रकार हैं: वह जो मांस लाता है या मँगवाता है, वह जो पशु के अंग काटता है, और वह जो मांस खरीदता, बेचता या पकाकर खाता है - ये सभी मांसाहारी माने जाते हैं।" (महाभारत, अनु. 115)

(ऐसी ही बात मनुस्मृति में भी है)

महाभारत (अनु. 115) में कहा गया है कि

"जो पुरुष (मनुष्य) नियमपूर्वक व्रत का पालन करता हुआ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करता है तथा जो मद्य व मांस का सदैव के लिए परित्याग करता है, उन दोनों को एक-सा ही फल मिलता है."

यानी एक बहुत बड़े पुण्यफल की तुलना दूसरे बहुत बड़े पुण्यफल से की जा रही है. अगर अश्वमेध यज्ञ में वास्तव में अश्व की बलि या पशुबलि दी जाती, तो उसके फल की तुलना मांसाहार और मदिरा छोड़ने वाले पुण्यफल से कैसे की जा सकती थी? 

अश्वमेध यज्ञ राजा के लिए राज्य की रक्षा, धर्म की प्रतिष्ठा और लोककल्याण का साधन है. अश्वमेध यज्ञ का अर्थ है महान व्रत, तप और नियमों का पालन करते हुए चेतना की शुद्धि करना. और मांस, मद्य का परित्याग भी व्यक्ति के भीतर मन की शुद्धि लाता है और चेतना का विकास करता है.

जिस मनुष्य का मन शुद्ध और साफ होता है, उसे सारी चीजें स्पष्ट दिखाई देती हैं, कोई भी सत्य या असत्य और सही या गलत उससे छिप नहीं पाता.

अगर पानी बिल्कुल शुद्ध और निर्मल है, तो उसमें डाली गई कोई भी चीज जैसे पत्ता, कंकड़ या यहां तक कि हल्की धूल भी तुरंत दिखाई दे जाती है. लेकिन अगर पानी गंदा और मैला है, तो चाहे उसमें कोई बड़ा कंकड़ ही क्यों न डाला जाए, वह भी साफ दिखाई नहीं देगा.

दोनों ही साधनाएँ अंततः आत्मसंयम, आत्म उन्नति, आत्मरक्षा और धर्म के विकास की दिशा में ले जाती हैं. इसलिए उनका फल भी समान कहा गया है.

वेदों का गूढ़ यज्ञ व धर्म-राष्ट्र के कल्याण का उत्तरदायित्व केवल राजा-महाराजाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि नीच व्यक्ति भी मांस मदिरा का सदैव के लिए त्याग करके (और अपनी आत्मिक उन्नति की ओर प्रयासरत रहकर) उतना ही पुण्यफल प्राप्त कर सकता है, धर्म के विकास में उतना ही योगदान दे सकता है, जितना राजर्षि अश्वमेध यज्ञ से प्राप्त करते और देते हैं.

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