आरतियों और स्तुतियों की रचना ईश्वर से केवल भौतिक सुख-संपत्ति माँगने के लिए नहीं की गई है, बल्कि ये आत्मिक साधना का उपकरण हैं. इनकी हर पंक्ति में जीवन के सत्य और साधक के भीतर के दोषों, कमजोरियों को पहचानने, उन्हें दूर करने, और अपनी चेतना को उच्चतर अवस्था तक उठाने का मार्ग छिपा होता है.
आज जब लोग कहते हैं कि “आरतियाँ तो सिर्फ कर्मकांड हैं, इनमें कुछ नहीं रखा…” तो वे केवल शब्दों के स्तर पर अटक जाते हैं. जबकि अगर भाव, अर्थ और गूढ़ार्थ के साथ आरती की पंक्तियाँ समझी और मनन की जाएँ, तो ये आत्मा को भटकाव से स्थिरता, डर से निर्भीकता, लोभ से संतोष, अहंकार से विनम्रता और भटकते मन को ईश्वर के प्रति केंद्रित करने का अद्भुत साधन बन जाती हैं.
जो व्यक्ति आत्मा, मन और विचारों को ऊपर उठाना सीख लेता है, वही बाहर की दुनिया में भी सफलता, सम्मान और आनंद प्राप्त करता है, क्योंकि बाहर का जीवन भीतर के मन का ही प्रतिबिंब होता है.
"ॐ जय जगदीश हरे" आरती भगवान विष्णु को समर्पित एक लोकप्रिय स्तुति है.
ॐ जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट,
दास जनों के संकट,
क्षण में दूर करे॥
ॐ जय जगदीश हरे...
जो ध्यावे फल पावे,
दुःखबिन से मन का,
स्वामी दुःखबिन से मन का।
सुख सम्पति घर आवे-२
कष्ट मिटे तन का॥
ॐ जय जगदीश हरे..
मात-पिता तुम मेरे,
शरण गहूं किसकी,
स्वामी शरण गहूं मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा-२
आस करूं मैं जिसकी॥
ॐ जय जगदीश हरे..
तुम पूरण परमात्मा,
तुम अन्तर्यामी,
स्वामी तुम अन्तर्यामी।
पारब्रह्म परमेश्वर-२
तुम सब के स्वामी॥
ॐ जय जगदीश हरे..
तुम करुणा के सागर,
तुम पालनकर्ता,
स्वामी तुम पालनकर्ता।
मैं मूरख फलकामी,
मैं सेवक तुम स्वामी,
कृपा करो भर्ता॥
ॐ जय जगदीश हरे..
तुम हो एक अगोचर,
सबके प्राणपति,
स्वामी सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूं दयामय-२
तुमको मैं कुमति॥
ॐ जय जगदीश हरे..
दीन-बन्धु दुःख-हर्ता,
तुम रक्षक मेरे,
स्वामी तुम रक्षक मेरे।
अपने हाथ उठाओ,
अपनी शरण लगाओ,
द्वार पड़ा तेरे॥
ॐ जय जगदीश हरे..
विषय-विकार मिटाओ,
पाप हरो देवा,
स्वामी पाप हरो देवा।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ-२
सन्तन की सेवा॥
ॐ जय जगदीश हरे..
ॐ जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट,
दास जनों के संकट,
क्षण में दूर करे॥
ॐ जय जगदीश हरे...!
संक्षिप्त व्याख्या
हे जगत के पालनहार प्रभु, हे जगदीश्वर विष्णु! आपकी जय हो! आपकी सदा विजय हो! "जगदीश" यानी जगत के ईश्वर और "हरे" यानी हरने वाले, वह जो भक्तों के सारे दुख हर लेते हैं. इस पंक्ति में आत्मा का ईश्वर को पूर्ण समर्पण है, जो उसे जगत के भ्रम से निकालकर परम सत्य की ओर ले जाता है.
आप अपने भक्तों और सेवकों के संकटों को एक क्षण में ही दूर कर देते हैं. ईश्वर कालातीत हैं. उनके लिए समय बाधा नहीं है. जब भी कोई सच्चे हृदय से पुकारता है, दिव्य सत्ता तुरंत प्रतिक्रिया करती है. यह भरोसा आत्मा की आस्था को दृढ़ करता है कि "तू पुकार तो सही, वो सुनने को तत्पर है."
जो भी आपको ध्यान करता है, वह अपने मन के दुखों से मुक्ति पाकर इच्छित फल को प्राप्त करता है. ध्यान केवल भौतिक फल नहीं, चित्त की शुद्धि और आत्मसंतोष देता है. यहाँ "फल" का तात्पर्य केवल बाहरी उपलब्धियों से नहीं, अंतर-शांति से भी है. जब मन का दुःख मिटता है, तभी परम आनंद की अनुभूति होती है.
आपकी कृपा से सुख और समृद्धि घर में आती है और शरीर के कष्ट भी दूर होते हैं. यहाँ संपत्ति का अर्थ केवल धन नहीं, बल्कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति है. तन का कष्ट तभी दूर होता है जब भीतर का संतुलन स्थापित हो. ईश्वर की कृपा से जीवन समरस बनता है.
हे प्रभु! आप ही मेरे माता-पिता हैं. मैं और किसकी शरण में जाऊं? जब आत्मा को संसार से कोई भी स्थायी सहारा नहीं दिखता, तब वह दिव्य सत्ता को अपने एकमात्र आश्रय के रूप में स्वीकार करती है. यह पूर्ण आत्मसमर्पण का प्रतीक है.
आपके सिवा मैं किसी और से कोई अपेक्षा नहीं करता. ईश्वर के प्रति यह पूर्ण विश्वास है कि "मेरे जीवन में जो होगा, वह तुम्हारी इच्छा से होगा." जब ये भाव जगते हैं, तब मोह, भय और अपेक्षाएँ स्वतः मिट जाती हैं.
आप पूर्ण परमात्मा हैं, और हर किसी के हृदय में स्थित अन्तर्यामी हैं. परमात्मा केवल बाहर नहीं, हमारे भीतर भी वास करते हैं, यही "अन्तर्यामी" का अर्थ है. वे सब कुछ जानते हैं, क्योंकि वे चेतना के मूल स्रोत हैं. यह आत्मा की पहचान अपने मूल से है.
आप ही वह निराकार, सर्वोच्च ब्रह्म हैं और समस्त जगत के स्वामी हैं. "पारब्रह्म" वह सत्ता है जो रूप और गुणों से परे है. यहाँ भक्त विष्णु को साकार रूप में देखकर भी निर्गुण ब्रह्म के रूप में नमन करता है, यह साकार-निर्गुण का अद्वैत मिलन है.
आप करुणा से भरे हैं और सभी प्राणियों के पालनकर्ता हैं. सत्य यह है कि प्रकृति पालन नहीं करती, ईश्वर करता है. प्रकृति तो केवल माध्यम है. ईश्वर की करुणा अंधकार में दीपक जैसी है, जो जीवन को दिशा देती है.
मैं अज्ञानी और केवल फल की इच्छा रखने वाला हूँ, सेवक हूँ, आप स्वामी हैं, कृपा कीजिए! यह स्वीकारोक्ति है अपने दोषों की, जो आत्मा को शुद्ध करती है. जब व्यक्ति अपना "अहं" छोड़कर खुद को सेवक मानता है, तभी सद्भावना की ऊर्जा भीतर उतरती है.
आप एकमात्र ऐसे हैं जिन्हें इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता, और आप ही सभी प्राणियों के स्वामी हैं. "अगोचर" यानी जो गोचर यानी इंद्रियों की पहुँच से बाहर है. आप उसे देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते, छू नहीं सकते, लेकिन अनुभव कर सकते हैं, ध्यान और भक्ति से.
हे दयालु प्रभु! मैं तो बुद्धिहीन हूँ, आपको किस उपाय से पाऊँ? जब अहंकार गिरता है, तब आत्मा जानती है कि ईश्वर को कोई उपाय से नहीं, केवल कृपा और समर्पण से पाया जा सकता है. यही "कुमति" की मुक्ति है.
आप ही दीनों के बंधु और दुःखों को हरने वाले हैं, आप ही मेरे रक्षक हैं. "रक्षा" का अर्थ केवल शारीरिक रक्षा नहीं, बल्कि धार्मिक और आत्मिक पतन से बचाना भी है. यह पंक्ति सच्चे शरणागत भाव को दर्शाती है.
हे प्रभु! अपने करकमलों को उठाकर मुझे अपनी शरण दो, मैं तो आपके द्वार पर पड़ा हूँ. यह पूर्ण आत्मसमर्पण का भाव है. जब आत्मा संसार से थककर केवल प्रभु के चरणों में विश्राम चाहती है, तब वह सच्चे अर्थों में भक्ति की शुरुआत करती है.
हे देव! मेरी विषयवासना और दोषों को मिटाइए, और मेरे पापों को हर लीजिये. "विकार" बाहर से नहीं आते, वे भीतर उपजते हैं. यह प्रार्थना मन की शुद्धि की है, जहाँ भक्त प्रभु से भीतर की सफाई की याचना करता है.
मेरी श्रद्धा और भक्ति को बढ़ाइए, और मुझे संतों की सेवा का अवसर दीजिये. यह अंत में सद्गति की याचना है. श्रद्धा-ज्ञान को स्वीकार करने की भावना, और सेवा-अहं को मिटाकर जीवन को समर्पण में ढालना, यही जीवन का चरम साधन है. "ॐ जय जगदीश हरे", प्रत्येक खण्ड के अंत में इस पंक्ति का दोहराव भक्ति को पुनः ईश्वर में स्थिर करता है. यह एक मन को लयबद्ध करने वाली तकनीक है, जिससे ध्यान और भक्ति गहराते हैं.
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