अति सर्वत्र वर्जयेत्: जीवन का सनातन सिद्धांत और संतुलन का रहस्य
संतुलन ही जीवन का सौंदर्य — जीवन का स्वाद संतुलन में है
भारतीय संस्कृति ने हमें कई छोटे-छोटे सूत्र दिए हैं, जो जीवन को जीने का मार्ग बताते हैं। भारतीय दर्शन, विशेषकर नीति शास्त्र और उपनिषदों में संयम और मध्यमार्ग पर विशेष बल दिया गया है। इन्हीं सिद्धांतों में एक अत्यंत प्रसिद्ध और प्रासंगिक वाक्य है – “अति सर्वत्र वर्जयेत्”। इसका सरल अर्थ है— “हर प्रकार की और हर जगह अति का त्याग करो”। यह सूक्ति हमें बताती है कि जीवन में किसी भी वस्तु, कर्म, व्यवहार या प्रवृत्ति की अत्यधिकता हानिकारक होती है।
“अति सर्वत्र वर्जयेत्” — जिसका सीधा अर्थ है अत्यधिकता हर जगह त्याज्य है। यह केवल एक उपदेश नहीं, बल्कि जीवन का वह गहरा दर्शन है, जो हमें बताता है कि सुख, शांति और प्रगति का रहस्य संतुलन में छिपा है।
हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में देखते हैं कि किसी भी चीज़ की अधिकता समस्या पैदा करती है। ज़्यादा भोजन, ज़्यादा नींद, ज़्यादा गुस्सा, ज़्यादा मोह— सब कुछ अंत में दुख ही देता है। वहीं दूसरी ओर, जब जीवन संतुलन में होता है, तो सब कुछ मधुर, सहज और आनंदमय लगता है।
यदि आप चाहें तो इसे एक चाय की प्याली से समझ सकते हैं। चाय में चीनी ज़्यादा डाल दीजिए, तो स्वाद बिगड़ जाता है। बिना चीनी की चाय भी फीकी लगती है। जैसे चाय की प्याली में न चीनी की अति अच्छी लगती है और न ही बिना चीनी की चाय। स्वाद वही है, जो सही मात्रा में हो। यही जीवन का राज़ है— “मात्रा में ही श्रेष्ठता है”। सही आनंद तो तभी है, जब सब कुछ उचित मात्रा में हो। यही है “मात्रा में ही श्रेष्ठता” का सिद्धांत।
“अति सर्वत्र वर्जयेत” का अर्थ है हर चीज़ की अति हानिकारक है। इस लेख में हम आधुनिक जीवन के उदाहरणों से समझेंगे कि संतुलन ही सफलता और सुख का मूल है।
अति सर्वत्र वर्जयेत” का अर्थ और स्रोत —
सूक्ति “अति सर्वत्र वर्जयेत्” के अर्थ की व्याख्या:
‘अति’ का अर्थ है — सीमा से अधिक, अतिरेक।
‘सर्वत्र’ का अर्थ है — हर जगह, हर क्षेत्र में।
‘वर्जयेत’ का अर्थ है — त्याग करना, छोड़ देना।
सरल भाषा में:
हर कार्य, हर वस्तु और हर व्यवहार में यदि सीमा का उल्लंघन होता है तो उसका परिणाम नकारात्मक होता है।
सूक्ति “अति सर्वत्र वर्जयेत्” का स्रोत — शास्त्रों से प्रमाण: अति का त्याग
भारतीय ग्रंथों में बार-बार संतुलन का महत्व बताया गया है। संस्कृत साहित्य में कई जगह इस विचार को रूपांतरित रूप में प्रयोग किया गया है। यह वाक्य हितोपदेश और नीति शास्त्रों में पाया जाता है। महाभारत और उपनिषदों में भी “मध्यम मार्ग” (Balance/Moderation) को जीवन का सर्वोत्तम पथ बताया गया है।
1. भगवद्गीता (अध्याय 6, श्लोक 16-17):
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं —
“नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति-स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥”
अर्थ: जो न बहुत खाता है, न बहुत कम; न बहुत सोता है, न बहुत जागता है — वही योग में सफल होता है।
अर्थात्:
न बहुत खाने वाला योगी बन सकता है,
न ही बहुत उपवास में खुद को कमजोर करने वाला
न बहुत सोने वाला, न बहुत जागने वाला
सफल वही है जो संतुलन रखता है।
भगवान कृष्ण कहते हैं:
“युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु,
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।”
अर्थ: जो आहार-विहार, कर्म, नींद और जागरण में संयमित है, उसका योग सभी दुखों का हरण करता है।
2. शास्त्र और उपनिषद: शास्त्रों में कहा गया है कि सुख और तपस्या दोनों की अति व्यर्थ है। जीवन का मार्ग मध्यम है।
साधु संतों ने भी “अत्यधिक भोग” और “अत्यधिक तप” दोनों का त्याग करके मध्यम मार्ग को जीवन के लिए सर्वोत्तम बताया।
3. आयुर्वेद: आचार्य चरक ने कहा— “मात्राशी सदा भवेत्” यानी जो आहार मात्रा में करता है वही स्वस्थ रहता है।
हितोपदेश: इसमें स्पष्ट कहा गया है— “अत्यन्तं दारुणं शस्त्रं तृणमप्यवधारयेत्” यानी छोटा-सा तिनका भी अगर अति हो जाए, तो हानि पहुँचा सकता है।
आज के संदर्भ में प्रासंगिकता – अति क्यों है हानिकारक?
1. Health – Overeating, over-sleeping = health down।
2. Work – Overwork = burnout, laziness = failure।
काम का अतिरेक: Burnout और स्वास्थ्य हानि।
आराम की अति: आलस्य और असफलता।
3. Emotions – Overlove = blindness, overhate = violence।
4. Technology – Overtime online = mental stress।
सोशल मीडिया की अति: मानसिक तनाव और समय की बर्बादी।
यानी life का ultimate formula है –
Balance = Bliss
“अति सर्वत्र वर्जयेत” केवल एक संस्कृत सूक्ति नहीं, बल्कि जीवन जीने का सार्वकालिक सिद्धांत है। चाहे भोजन हो, नींद हो, धन हो, प्रेम हो या ज्ञान — हर जगह अति से बचकर मध्यम मार्ग अपनाना ही बुद्धिमत्ता है।यदि जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन रखा जाए तो मानसिक शांति, शारीरिक स्वास्थ्य और सामाजिक सामंजस्य बना रहता है।
संतुलन का विज्ञान और मनोविज्ञान (Why Balance is Science of Life)
आज विज्ञान भी वही कहता है जो शास्त्रों ने कहा।
मनोविज्ञान में moderation theory: Goldilocks Principle कहता है— किसी भी चीज़ का न बहुत कम, न बहुत अधिक, बल्कि “जितनी ज़रूरत हो उतनी” मात्रा सबसे सही है।
स्वास्थ्य विज्ञान: ज़्यादा नींद और कम नींद दोनों ही बीमारियों का कारण हैं।
वर्क-लाइफ बैलेंस: अत्यधिक काम या अत्यधिक आराम, दोनों से व्यक्ति थकावट और निराशा में जाता है।
अति के दुष्परिणाम: कहानियों के माध्यम से
1. भोजन की अति – पंचतंत्र से सीख
पंचतंत्र में एक कहानी है। एक बार एक बंदर ने देखा कि लकड़हारे ने लकड़ी के तख्ते में फाँक फँसा रखी है। वह बंदर जिज्ञासु था। वह उस फाँक को निकालने लगा। जैसे ही उसने ज़्यादा ज़ोर लगाया, उसकी पूँछ फँस गई और लकड़हारा लौट आया।
सीख: जिज्ञासा अच्छी है, पर उसकी अति मुसीबत बन जाती है।
2. धन की अति – राजा ययाति की कथा
महाभारत में राजा ययाति की कथा आती है। उन्हें शाप मिला कि वे वृद्ध हो जाएँगे। उन्होंने अपने पुत्रों से युवावस्था माँगी और अंततः कई वर्षों तक भोग करते रहे। लेकिन अंत में उन्होंने माना— “कामना कभी पूरी नहीं होती, यह अग्नि की तरह है। जितना घी डालो उतना और भड़कती है।”
सीख: धन और भोग की अति कभी संतोष नहीं देती।
3. मोह की अति – धृतराष्ट्र का उदाहरण
महाभारत का युद्ध धृतराष्ट्र के मोह का ही परिणाम था। अपने पुत्रों के प्रति अंधे प्रेम ने उन्हें सत्य से विमुख कर दिया और पूरा वंश नष्ट हो गया।
सीख: मोह की अति विनाश का कारण बनती है।
4. लालच की अति – पंचतंत्र से सीख
एक किसान के घर में एक हंस था जो रोज़ एक सोने का अंडा देता था। किसान ने सोचा – “अगर ये हंस रोज़ एक अंडा देता है, तो इसके पेट में और भी होंगे।” उसने लालच में आकर हंस को मार दिया। न अंडा मिला, न हंस बचा।
सीख: लालच की अति अंततः नुकसान ही करती है।
जीवन के क्षेत्र जहाँ "अति" विनाशकारी है — अति कहाँ-कहाँ नुकसान करती है?
1. भोजन में अति – पेट पूजा से पेट की सजा
भोजन स्वादिष्ट हो तो हम सोचते हैं “चलो एक प्लेट और खा लें।” लेकिन ज़रा सोचिए –
अधिक भोजन → अपच, मोटापा, शुगर
कम भोजन → कमजोरी, ऊर्जा की कमी
कम खाना शरीर को कमजोर करता है, अति भोजन पाचन विकार, मोटापा और रोगों को जन्म देता है।संतुलित आहार ही स्वास्थ्य का मूल है।
थोड़ा स्वाद जीवन का आनंद है, पर पेट से कम या ज़्यादा भोजन रोगों का घर है। आज की बीमारियाँ— कुपोषण, विटामिनों की कमी, मोटापा, डायबिटीज़, बीपी— सब इसी अति के ही परिणाम हैं।
यही कारण है कि आयुर्वेद भी कहता है – “मात्राशी सदा भवेत्” (हमेशा भोजन मात्रा से करना चाहिए)।
2. नींद में अति – कम भी बुरी, ज़्यादा भी बुरी
4–5 घंटे की नींद → चिड़चिड़ापन, तनाव
12 घंटे की नींद → आलस्य, lethargy
कम नींद से शरीर थक जाता है, मानसिक तनाव बढ़ता है। अधिक नींद से आलस्य और जीवन में निष्क्रियता आती है। डॉक्टर कहते हैं कि 7–9 घंटे की नींद ही perfect है।
संतुलित नींद से ही कार्यक्षमता बनी रहती है।
3. धन, भोग और करियर की अति
बहुत ज़्यादा पैसा कमाने की होड़ → corruption, stress
लेकिन पर्याप्त धन के बिना → basic ज़रूरतें पूरी नहीं होतीं
धन अर्जन आवश्यक है, पर लोभ जीवन को बाँध लेता है। जितना धन ज़रूरत के अनुसार है, उतना सुख देता है; परंतु उसकी अति असुरक्षा और बेचैनी को जन्म देती है। करियर बनाना ज़रूरी है, पर “हसल कल्चर” में "अति" हमें थका देती है। संतुलन में ही सफलता है।
धन की कमी व्यक्ति को भ्रष्टाचार की ओर ले जाता है। लेकिन अत्यधिक विलासिता जीवन को अस्थिर करती है।
महाभारत में धृतराष्ट्र का उदाहरण सबको पता है। मोह और लोभ की अति ने उसके पूरे वंश का नाश कर दिया। आज के ज़माने में भी यही सच है।
संतुलन ही सुख का मार्ग है। मध्यम मार्ग अपनाने से जीवन सुखी और स्थिर रहता है।
4. प्रेम और मोह की अति
धृतराष्ट्र को अपने पुत्रों से इतना मोह था कि उन्होंने कभी उनकी गलतियों पर रोक नहीं लगाई। परिणाम? महाभारत का विनाशकारी युद्ध। यही बात modern life में भी सही है।
Over-caring parents → बच्चे dependent बन जाते हैं।
Lack of care → बच्चे emotionally कमजोर।
5. ज्ञान और अध्ययन की अति
6. Modern Example – डिजिटल जीवन, Mobile Phone की अति
यह आज का सबसे relatable example है। आज मोबाइल, सोशल मीडिया, गेम्स की अति हर परिवार की समस्या बन चुकी है।
थोड़ी देर मोबाइल → काम, जानकारी, मनोरंजन।
बहुत ज़्यादा मोबाइल → आँखों की रोशनी कम, anxiety, depression।
यानी technology भी तभी वरदान है जब limit में हो। संयम ही समाधान है।
Quick Takeaway
खाना: ना कम खाओ, ना ज्यादा खाओ
नींद: ना जागो रात भर, ना सोओ दोपहर भर
पैसा: ना लालच से कमाओ, ना आलस्य से गंवाओ
मोबाइल: काम के लिए चलाओ, addiction मत बनाओ
संतुलन का दर्शन: “मात्रा में ही श्रेष्ठता” – मध्यम मार्ग ही श्रेष्ठ है
भगवद्गीता का सन्देश
भारतीय ऋषियों ने बार-बार कहा कि जीवन का सौंदर्य संतुलन में है। गीता में भी भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
“युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।”
जो व्यक्ति आहार, विहार और कर्म में संयम रखता है, वही सफल और शांत होता है।
इसका अर्थ है कि चाहे काम हो, आराम हो, या आनंद— सब कुछ संयमित हो तो ही जीवन मधुर बनता है।
अन्य सूत्र जो संतुलन सिखाते हैं
1. मितं च सारं च वदेत्
2. नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति (गीता 6.16-17)
3. युक्ताहारविहारस्य (गीता 6.17)
4. सर्वं प्रमाणेन सेव्येत
5. अति सर्वत्र वर्जनीया, मिता वृष्टिः सुखावहा
6. नाधिकं नातिन्यूनं, सर्वत्र समं चर
7. अति दानाद् भ्रमः, अति मानात् पतनम्
8. न हि सत्यम् अपि प्रियं सर्वदा वक्तव्यं
9. मितं यत्नेन भुञ्जीत
इन सभी सूत्रों का मूल संदेश यही है कि — “मध्यम मार्ग” ही जीवन की सच्ची नीति है। चाहे भोजन हो, धन हो, ज्ञान हो, प्रेम हो, क्रोध हो या वाणी — हर चीज़ मर्यादा और संतुलन में ही सुंदर और उपयोगी है। हर सूत्र हमें जीवन का वही संदेश देता है— संतुलन ही सफलता और शांति का मार्ग है।
आध्यात्मिक दृष्टि: संतुलन और साधना
आध्यात्मिक जीवन में भी संतुलन की आवश्यकता है।
ध्यान में संतुलन: बहुत अधिक तपस्या शरीर को तोड़ देती है, और भोग जीवन को कमजोर बना देता है। दोनों के बीच का मार्ग ही सच्चा साधन है।
योग का दर्शन: पतंजलि योगसूत्र कहता है— “योगः चित्तवृत्ति निरोधः।” इसके लिए आहार, विहार और व्यवहार में संतुलन ज़रूरी है।
प्रेरक उद्धरण और संतों के विचार
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।”
जीवन की सबसे बड़ी कला है— संतुलन
“अति सर्वत्र वर्जयेत्” और “मात्रा में ही श्रेष्ठता है” हमें यही सिखाते हैं कि जीवन का आनंद और सफलता अत्यधिकता में नहीं, बल्कि संतुलन में है।
दार्शनिक दृष्टि यह सूत्र हमें यह बताता है कि जीवन में हर चीज़ का प्रमाण और सीमा है।
समुद्र की लहरें सीमा में हैं तो सुंदर हैं, पर जब वे अपनी सीमा तोड़ती हैं तो सुनामी बन जाती हैं। उसी प्रकार जीवन की हर “अति” हमें विनाश की ओर ले जाती है।
बात इतनी सी है— ज़्यादा तेल, ज़्यादा नमक, ज़्यादा बात, ज़्यादा गुस्सा, सब चीज़ का मज़ा किरकिरा कर देता है। इसी तरह जीवन की हर चीज़, चाहे वह धन हो, प्रेम हो, भोजन हो या भक्ति— जब तक वह संतुलन में है, तब तक सुखद है।
“अति सर्वत्र वर्जयेत्” और “मात्रा में ही श्रेष्ठता है” — ये दोनों सूत्र केवल ग्रंथों में पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि जीने के लिए हैं। यही जीवन का असली मैनेजमेंट मंत्र है। अगर आप इसे रोज़मर्रा की छोटी-छोटी आदतों में उतार लेंगे, तो पाएँगे कि ज़िंदगी न केवल आसान होगी, बल्कि उसमें आनंद, शांति और सफलता स्वतः ही आ जाएगी।
याद रखिए: ना कम, ना ज़्यादा— बस सही मात्रा ही जीवन का असली स्वाद है।
FAQs
-
“अति सर्वत्र वर्जयेत्” का सबसे सरल अर्थ क्या है?
हर चीज़ की अति त्याज्य है। संतुलन ही श्रेष्ठ है। -
यह सूत्र किस शास्त्र से लिया गया है?
यह विचार हितोपदेश, महाभारत और नीतिशास्त्रों में मिलता है। -
क्या यह आज की आधुनिक जीवनशैली में भी लागू होता है?
हाँ, स्वास्थ्य, रिश्ते, करियर और डिजिटल जीवन— हर जगह संतुलन जरूरी है। -
इसे अपनाने का सबसे सरल तरीका क्या है?
रोज़मर्रा की आदतों में “मात्रा” का ध्यान रखें— भोजन, नींद, काम, गुस्सा, खर्च सब में।
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